RSS | सिर्फ एक संगठन या भारत का ‘ऑपरेटिंग सिस्टम’? जानिए वो सब कुछ जो मीडिया आपको नहीं बताता
चलिए, एक कप चाय या कॉफ़ी के साथ बैठते हैं और एक ऐसे विषय पर बात करते हैं जिसे लेकर अक्सर ऊंची आवाज़ में बहस होती है, लेकिन शांति से समझने की कोशिश कम ही होती है। विषय है – आरएसएस ।
जैसे ही ये तीन अक्षर सुनाई देते हैं, दिमाग में क्या आता है? खाकी निकर (अब पैंट) पहने लोग, सुबह-सुबह मैदान में लाठी चलाना, अनुशासन, और शायद राजनीति से जुड़े कुछ विवादित बयान। ये सब सच है, लेकिन ये पूरी तस्वीर का एक छोटा सा, बहुत छोटा सा हिस्सा है।
यहाँ बात सिर्फ एक संगठन की नहीं है। बात उस अदृश्य शक्ति की है जो भारत की राजनीति, समाज और संस्कृति की गहराइयों में काम कर रही है। इसे समझना किसी पहेली को सुलझाने जैसा है। तो चलिए, आज हम सिर्फ खबर नहीं पढ़ेंगे, बल्कि उस पहेली के टुकड़ों को जोड़ने की कोशिश करेंगे। ये समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर संघ क्या है , यह काम कैसे करता है, और सबसे ज़रूरी सवाल – यह आज के भारत के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
Let’s be honest, इसे समझना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। पर मैं यहाँ आपको बोरिंग इतिहास के पन्ने पलटाने के लिए नहीं, बल्कि इसके पीछे की ‘सोच’ और ‘कार्यप्रणाली’ को समझाने के लिए हूँ।
‘शाखा’ से शक्ति तक | आरएसएस की अदृश्य ताकत का राज़

अक्सर लोग पूछते हैं, “आरएसएस की ताकत का स्रोत क्या है? कोई बड़ी फंडिंग एजेंसी? कोई राजनीतिक दल?” जवाब इससे कहीं ज़्यादा सरल और जटिल है। इसकी असली ताकत है – ‘शाखा’।
हाँ, वही सुबह लगने वाली शाखा।
बाहर से देखने पर यह सिर्फ कुछ शारीरिक व्यायाम, खेल और देशभक्ति के गीत गाने का एक कार्यक्रम लगता है। लेकिन असल में, यह एक जीनियस नेटवर्किंग और आइडियोलॉजी-बिल्डिंग मॉडल है। सोच कर देखिए: देश भर में हज़ारों जगहों पर, हर रोज़, बिना किसी तामझाम के, लोग मिलते हैं। वे एक-दूसरे को नाम से जानते हैं, उनके परिवार के बारे में जानते हैं, और एक खास विचारधारा पर रोज़ाना चर्चा करते हैं।
यह कोई व्हाट्सएप ग्रुप नहीं है, यह एक वास्तविक, ज़मीनी नेटवर्क है। यहीं पर ‘व्यक्ति निर्माण’ का काम होता है, जैसा कि संघ कहता है। एक ऐसी पीढ़ी तैयार की जाती है जो एक खास नज़रिए से दुनिया को देखती है।
और फिर आते हैं ‘प्रचारक’। ये वो लोग हैं जो अपना घर-परिवार सब कुछ छोड़कर पूरी ज़िन्दगी संघ के काम के लिए समर्पित कर देते हैं। वे इस विशाल नेटवर्क के नोड्स (nodes) की तरह काम करते हैं, जो विचारधारा को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचाते हैं। आज भारत के प्रधानमंत्री से लेकर कई राज्यों के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री इसी ‘प्रचारक’ व्यवस्था की उपज हैं।
तो अगली बार जब आप बीजेपी और आरएसएस के रिश्ते के बारे में सोचें, तो यह मत समझिए कि नागपुर से कोई फ़ोन कॉल आता है और सरकार काम करती है। यह रिश्ता इससे कहीं ज़्यादा गहरा और वैचारिक है। यह एक ऐसी मशीनरी है जो दशकों से, चुपचाप, लगातार अपने कैडर को तैयार कर रही है। इसकी असली शक्ति किसी बयान में नहीं, बल्कि इसी ज़मीनी नेटवर्क में छिपी है। ज़्यादा जानकारी के लिए आप समाचार पढ़ सकते हैं।
‘हिंदुत्व’ बनाम ‘हिंदू धर्म’ | सबसे बड़ी ग़लतफ़हमी को समझिए

अब आते हैं उस शब्द पर जिसे लेकर सबसे ज़्यादा बहस होती है – हिंदुत्व । ज़्यादातर लोग इसे हिंदू धर्म का ही दूसरा नाम समझ लेते हैं, और यहीं सबसे बड़ी गलती होती है।
इसे समझने के लिए, हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। ‘हिंदुत्व’ की अवधारणा को वी.डी. सावरकर ने लोकप्रिय बनाया था। उनके अनुसार, यह कोई पूजा-पाठ की विधि नहीं, बल्कि एक राजनीतिक और सांस्कृतिक विचारधारा है। हिंदुत्व की अवधारणा के मुताबिक, ‘हिंदू’ वो है जो भारत को अपनी पितृभूमि (ancestral land) और पुण्यभूमि (holy land) दोनों मानता है।
यह एक बहुत बड़ा वैचारिक अंतर है।
आरएसएस की विचारधारा इसी ‘हिंदुत्व’ पर आधारित है। संघ के अनुसार, भारत एक ‘हिंदू राष्ट्र’ है – सांस्कृतिक रूप से, न कि धार्मिक रूप से (theocratic)। उनका तर्क है कि भारत में रहने वाले मुसलमान और ईसाई भी सांस्कृतिक रूप से हिंदू हैं, क्योंकि उनके पूर्वज यहीं के थे।
अब आप समझ सकते हैं कि नागरिकता, धर्म परिवर्तन, और राष्ट्रीय पहचान जैसे मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण कहाँ से आता है। यह धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित है।
यह समझना क्यों ज़रूरी है? क्योंकि जब तक आप इस वैचारिक अंतर को नहीं समझेंगे, आप संघ और उसके सहयोगी संगठनों के कार्यों और बयानों के पीछे की असली मंशा को कभी नहीं समझ पाएंगे। वे धर्म की नहीं, ‘राष्ट्रीय पहचान’ की लड़ाई लड़ रहे हैं – कम से ‘उनकी’ नज़र में।
रिमोट कंट्रोल या वैचारिक गुरु? बीजेपी और आरएसएस का असली रिश्ता

यह मिलियन डॉलर का सवाल है। क्या आरएसएस बीजेपी का ‘रिमोट कंट्रोल’ है?
यह कहना चीज़ों को बहुत ज़्यादा सरल बनाना होगा। रिश्ता इससे कहीं ज़्यादा जटिल है। इसे ऐसे समझिए: आरएसएस एक स्कूल की तरह है, और बीजेपी उस स्कूल से निकले हुए सबसे सफल छात्रों में से एक है। स्कूल सीधे तौर पर छात्र की कंपनी नहीं चलाता, लेकिन छात्र के हर फैसले में स्कूल की दी हुई शिक्षा और संस्कार झलकते हैं।
कई मौकों पर, बीजेपी सरकार के फैसले संघ की विचारधारा से अलग भी रहे हैं। लेकिन बड़े और नीतिगत मामलों में, वैचारिक दिशा हमेशा संघ से ही आती है। मोहन भागवत जब कोई भाषण देते हैं, तो वह सिर्फ एक संगठन के प्रमुख का भाषण नहीं होता; वह सरकार और उसके करोड़ों कार्यकर्ताओं के लिए एक वैचारिक दिशा-निर्देश होता है।
संघ सरकार को यह नहीं बताता कि पेट्रोल की कीमत क्या रखनी है, लेकिन वह यह ज़रूर बताता है कि देश की शिक्षा नीति, सांस्कृतिक नीति और विदेश नीति की आत्मा क्या होनी चाहिए। बीजेपी को चुनाव लड़ने के लिए ज़मीन पर जो करोड़ों अनुशासित स्वयंसेवक मिलते हैं, वो संघ की ही देन हैं। यह एक ऐसा अदृश्य समर्थन है जिसका मुकाबला कोई भी राजनीतिक दल आसानी से नहीं कर सकता।
तो, यह रिश्ता रिमोट कंट्रोल का नहीं, बल्कि एक वैचारिक गुरु और शिष्य का है, जहाँ शिष्य अब बहुत शक्तिशाली हो चुका है, लेकिन अपने गुरु की जड़ों को कभी नहीं भूल सकता।
विवाद और भविष्य | क्या बदल रहा है संघ?

ऐसा नहीं है कि आरएसएस का इतिहास बेदाग़ रहा है। इस पर तीन बार प्रतिबंध लग चुका है, महात्मा गांधी की हत्या के बाद सबसे प्रमुख रूप से। इस पर अक्सर समाज को बांटने और अल्पसंख्यकों के खिलाफ माहौल बनाने के आरोप लगते रहे हैं।
लेकिन, यहाँ एक और दिलचस्प बात देखने को मिलती है। हाल के वर्षों में, खासकर मोहन भागवत के नेतृत्व में, संघ अपनी छवि को बदलने की कोशिश कर रहा है। वह अब मुस्लिम समुदाय के बुद्धिजीवियों से मिलता है, समाज के अलग-अलग वर्गों तक अपनी पहुंच बना रहा है, और ‘हिंदुत्व’ की एक ज़्यादा समावेशी परिभाषा गढ़ने की कोशिश कर रहा है।
सवाल यह है कि यह बदलाव असली है या सिर्फ एक रणनीति? क्या यह बढ़ती हुई शक्ति के साथ आने वाली ज़िम्मेदारी का एहसास है, या फिर 21वीं सदी में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने का एक तरीका?
इसका जवाब भविष्य ही देगा। लेकिन एक बात साफ़ है: आप आरएसएस को पसंद करें या न करें, आप उसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। यह आज भारत की सत्ता, समाज और सोच के केंद्र में है। इसे समझे बिना, आप आज के भारत को पूरी तरह से नहीं समझ सकते। यह सिर्फ एक संगठन नहीं है; यह एक आंदोलन है, एक विचारधारा है, और कई लोगों के लिए, यह भारत का भविष्य तय करने वाला ‘ऑपरेटिंग सिस्टम’ है। विभिन्न खेलकूद गतिविधियों में भी संघ की उपस्थिति दिखती है।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs)
आरएसएस की स्थापना कब और किसने की?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में की थी।
क्या महिलाएं आरएसएस में शामिल हो सकती हैं?
आरएसएस एक पुरुष संगठन है। महिलाओं के लिए, 1936 में राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना की गई थी, जो एक समानांतर और स्वतंत्र संगठन के रूप में काम करती है और समान विचारधारा साझा करती है।
‘स्वयंसेवक’ का क्या मतलब होता है?
‘स्वयंसेवक’ का शाब्दिक अर्थ है ‘अपनी इच्छा से सेवा करने वाला’। आरएसएस के सदस्य को स्वयंसेवक कहा जाता है। वे संगठन से किसी भी प्रकार का वेतन या भत्ता नहीं लेते हैं।
क्या आरएसएस एक राजनीतिक दल है?
नहीं, आरएसएस खुद को एक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन बताता है, राजनीतिक दल नहीं। यह चुनाव नहीं लड़ता। हालांकि, इसकी एक राजनीतिक शाखा है, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जो इसकी विचारधारा पर काम करती है।
आरएसएस का मुख्यालय कहाँ है?
आरएसएस का मुख्यालय महाराष्ट्र के नागपुर शहर में स्थित है। यहीं से संगठन के सभी प्रमुख नीतिगत निर्णय लिए जाते हैं।